Environment Day :पहाड़ का बदलता पर्यावरण और हाशिये पर पहाड़ी - सुमित बहुगुणा ।। Web news Uttrakahnd ।।



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पर्यावरण दिवस विशेष इस लेख में पहाड़ों में हो रहे बदलावों को पहाडी की नजरों से देखते है ।

उत्तराखंड जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय बदलावों से हो रहे नुकसान का असर देखा जा सकता है उत्तराखंड की राजधानी देहरादून व अन्य मैदानी शहर वायु प्रदूषण के घेरे में तो पहले ही आ चुके हैं । किंतु आज चिंता यह है कि पहाड़ों में विकास के नाम पर हो रहे अंधाधुंध निर्माण कार्यो व पहाड़ी प्राकृतिक सम्पदाओं के निरंतर दोहन से ,वायु प्रदूषण जैसी गंभीर  समस्या ने पहाड़ों में भी जन्म ले लिया है । पहाड़ों में आज विभिन्न बांध परियोजनाओं के साथ बड़े पैमाने पर चल रहे निर्माण कार्यों ने हालात को और चिंताजनक बना दिया है । 2013 की केदारनाथ आपदा से तबाह संपूर्ण केदार घाटी में पुनर्निर्माण के कार्य जिस तेजी से गति पकड़ रहे हैं वह मनुष्यों का केदार घाटी पहुंचना सुगम कर देंगे परन्तु तेजी से हो रहा पर्यावरणीय नुकसान किसी आपदा से कम नहीं । विकास कार्यो को हमे SDG यानी सतत विकास के लक्ष्यों के आधार पर ही करना चाहिए ।

अंग्रेजों ने अपने समय में मसूरी, नैनीताल जैसे पहाड़ी कस्बे स्वच्छ पर्यावरण को देख कर बसाए ,साथ ही देहरादून शहर में शिवालिक और मध्य हिमालय से घिरी घाटी के स्वच्छ पर्यावरण को देखते हुए ही स्वप्निल बसेरे बनाए गए थे। इन जगहों को आज अलग अलग किस्म के प्रदूषणों की शिकार होते हुए देखा जा सकता है , सुहाने मौसम के लिए विख्यात दून अब धूल, धुएं और शोर की घाटी है। स्मार्ट सिटी के लिए नामित होने के साथ अब यहां विकास कार्यों ने जो गति पकड़ी है उससे प्रदूषण के स्तर का भी गति पकड़ना स्वाभाविक है। पहाड़ों से देहरादून पलायन कर घर बसाने की वजह से भी पिछले कुछ दशकों में यहां जनसंख्या में तेजी आई है साथ ही पड़ोसी राज्यों के लोगों द्वारा देहरादून की सरकारी जमीनों पर झुग्गी बस्तियां बसाने से भी जनसंख्या का बोझ राजधानी देहरादून पर पड़ा है।

ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने पर चिंताएं जताई जा रही हैं , विद्वानों और विशेषज्ञों में इस बारे में बहुत मतभेद भी हैं। कुछ कहते हैं ग्लेशियरों का पिघलना असाधारण बात नहीं है सैकड़ों हजारों साल के बाद ग्लेशियरों का बनना बिगड़ना स्वाभाविक व प्राकृतिक घटनाएं है लेकिन कुछ पर्यावरणविद और वैज्ञानिक पुरजोर तौर पर मानते है कि ग्लेशियरों का पिघलना एक सामान्य घटना नहीं है और ये जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े सूचकों में से एक है। इन बहसों से दूर भी रहा जाए लेकिन एक सच्चाई तो यही है  कि पहाड़ों के मौसम अब पहले जैसे तो नहीं रहे,आजकल होने वाली बेमौसमी बारिश हम देख ही रहे हैं।

फसल की पैदावार का पैटर्न भी दिनप्रति दिन बदला है।
फसलों में गुणात्मक और मात्रात्मक गिरावट दोनों देखी जा सकती है । पलायन के चलते बड़े पैमाने पर पहाड़ी जमीन बंजर हो रही है । मानव शून्यता के समय में भी नया माफिया पनप गया है जो भविष्य के लिए निर्माण से लेकर पलायन तक एक बहुत ही संगठित लेकिन अदृश्य शक्ति के रूप में सक्रिय है , यह स्तिथि भी पहाड़ और पहाडी के लिए चिन्तादायक हो सकती है

पहाड़ के पर्यावरण के परिपेक्ष में इन घटनाओं को पहाड के लिए अच्छा नही माना जा सकता, कोविड 19 कोरोना वाइरस के चलते लॉक डाउन की स्थिति से पर्यावणीय सुधारों को सतत नही माना जा सकता न ही यह सत्य है । हरिद्वार में स्वछ गंगाजल और सहारनपुर से दिखायी देने वाली पहाडी आनंदित तो करती है लेकिन कितने समय यह स्थिति बनी रहेगी इसका आकलन करना भी कठिन है । पहाड़ियों की पहाड वापसी को रिवर्स पलायन से जोड़ कर देखा जा रहा है लेकिन पलायन की स्थिति पहले आयी ही क्यों और अगर आज समय पहाड़ियों के पहाड़ वापसी का आया है तो सिस्टम उनके लिए पहाड़ फ्रेन्डली कौन सी योजनाएं बना रहा है इन बातों की चिंता हमे प्रर्यावरण दिवस पर आवश्य करनी चाहिए ।

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लेखक- सुमित बहुगुणा "पहाड़ी"

परिचय- अध्यक्ष ( IT प्रकोष्ठ ), पहाड़ी पार्टी - PP , पर्यावरण कॉलमिस्ट, युवा राष्ट्रवादी लेखक, पहाड़वाद सोच की अवधारणा रखने वाले पहाड़ हितैषी, चम्बा-उत्तराखण्ड पेज के एडमिन, ऑनर एन्ड फाउंडर - The Retreat Restorent Harawala , Dehradun

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