लोकपर्व फूलदेई : फूलदेई बसन्त ऋतु के स्वागत का त्यौहार है।।web news।।



चैत्र मास की संक्रान्ति को रंग बिरंगे फूलों से खुशहाली का लोकपर्व का फूलदेई

उत्तराखंड के लोकपर्व पार्ट - 1

देव भूमि उत्तराखंड में ऋतुओं के अनुसार अनेक लोकपर्व मनाए जाते हैं । यह लोकपर्व हमारी संस्कृति को उजागर करते हैं , साथ पहाड़ की परंपराओं को भी कायम रखे हुए हैं । इन्हीं खास पर्वों में शामिल “फुलदेई पर्व” उत्तराखंड में एक लोकपर्व है | उत्तराखंड में इस त्योहार की काफी मान्यता है | इस त्यौहार को फूल सक्रांति भी कहते हैं। लोकपर्व फूलदेई माह के स्वागत का पर्व है, नव वर्ष के स्वागत का पर्व है और नये साल का स्वागत और आशीष बच्चों से मिल जाय, तो सारे साल खुशी और उल्लास बना रहेगा, इसी कामना से यह पर्व मनाया जाता है।

बच्चे फूलदेई ऐसे मानते है

चैत्र मास की संक्रान्ति को उत्तराखण्ड में ‘फूलदेई’ के लोक पर्व मनाया जाता है, फूलदेई बसन्त ऋतु के स्वागत का त्यौहार है । छोटे बच्चे सुबह उठकर जंगलों से प्योली/फ्यूंली, बुरांस, आडू, खुबानी व पुलम आदि रंग बिरंगे ताजे फूलों को चुनकर लाते है इन फूलों को रिंगाल (बांस जैसी दिखने वाली लकड़ी) की टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल और नारियल रखकर बच्चे अपने घरों की ओर निकल जाते हैं। इन फूलों और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं। इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है- 
फूलदेई, छम्मा देई
दैण द्वार भरी भकार
य देई कै बारम्बार नमस्कार
फूलदेई,छम्मा देई
हमर टुपर भरी जै
हमर देई में उनै रै
फूलदेई,छम्मा देई

लोकपर्व फूलदेई से जुड़ी लोककथा

फूलदेई त्यौहार में द्वारपूजा के लिए एक जंगली फूल का इस्तेमाल होता है, जिसे फ्यूली कहते हैं। लोकपर्व फूलदेई से कई लोककथाएं जुड़ी हैं जिन में से एक है - एक वनकन्या थी, जिसका नाम था फ्यूंली। वनकन्या फ्यूली जंगल में रहती थी । जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसके दोस्त व परिवार के सदस्य थे । फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी, खुशहाली । एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ छोड़कर उसके साथ राजमहल चली गई । फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगी और पहाड़ उजाड़ होने लगे। उधर महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था...और एक दिन फ्यूंली मर गई। मरते-मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की, कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं दफना दे। फ्यूंली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था। जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई। इसी फ्यूंली के फूल से द्वारपूजा करके लड़कियां फूलदेई में अपने घर और पूरे गांव की खुशहाली की प्रार्थना करती हैं।

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