उत्तराखड की सांस्कृति का केंद्र बिन्दु है थौल मेले -विनय तिवारी ।। web news uttrakhand ।।
वी सी गब्बरसिंह स्मृति स्मारक चम्बा |
चम्बा की पहचान है इसकी पहाड़ी संस्कृति। ८ गति बैशाख का थौल चम्बा की एक विशेष सांस्कृतिक झलकी है। जो चम्बा के एक वीर पराक्रमी बेटे विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित शहीद गबर सिंह जी की स्मृति में आयोजित एक उत्सव है। वैसे तो पहाड़ों की संस्कृति अनेकों अलंकारों से सुशोभित है ही जिसमें प्रमुख हैं इसके धार्मिक यात्रा, रामलीला, पांडव नृत्य,धार्मिक अनुष्ठान,थौल मेले आदि। फिर भी थौल का महत्व इतना अधिक होता है कि इस दिन लोग घरों से निकल चम्बा की ओर हर्ष और उल्लास के माहौल के साथ बढ़ते हैं। अन्य दिनों की भांति चम्बा की ओर ये विशेष कार्य सिद्धि के लिए ना होकर वीर स्मृति में आनंदित होने के लिए होती है। वर्तमान में भले ही बाजारों में मेले जैसी ही भीड़ होती है लेकिन पहले के समय में बाज़ार ऐसे नहीं होते थे। अब जबकि बाज़ार रोज ही सजते हैं फिर भी थौल के दिन मानो लोग अपने सारे काम धाम छोड़ चल देते हैं चम्बा बाज़ार।
इस आयोजन में पहाड़ी जलेबी पकोड़ी, मिठाई और आईस क्रीम का महत्व बहुतायत होता है। बच्चों के खिलौने, झूला, चरखी आदि अनेकों साधन वर्तमान समय में थौल की पहचान हैं।
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बीते कुछ वर्षों में कार्यक्रम की रूपरेखा -
◆सर्वप्रथम थौल के कुछ दिन पूर्व से अगले शाम तक स्मारक की सफाई, सुधि इत्यादि किया जाता है।◆भारतीय सेना की गढ़वाल राइफल्स के जवान सलामी परेड की तैयारी करते हैं।
◆थौल वाले दिन सुबह वीर स्मारक को फूल मालाओं से सजाया जाता है।
◆सुबह की प्रथम किरण एवं मुहूर्त के साथ ढोल दमाऊ की थाप लिए शहीद के वंशज धूप दीप, फूल आदि से उनकी पूजा अर्चना करते हैं।
◆गढ़वाल राइफल्स के जवान जो कि पूरी तैयारी के साथ शहीद के सम्मान में परेड का आयोजन करते हैं। इसमें परेड, मस्क बाजे और ड्रम की अनेकों धुन तथा शहीद के स्मारक पर फूल अर्पण आदि कार्य होता है। यह थौल कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण बिंदु भी है। इसके साथ ही थौल का आगाज़ होता है। वर्तमान में थौल कार्यक्रम परिवहन की सुविधा के कारण देर शाम लगभग ८ बजे तक चलता है।
◆उसके बाद २ से ३ दिन शाम को राजकीय इंटर कॉलेज तल्ला चम्बा में रंगारंग सास्कृतिक कार्यक्रम भी किए जाते हैं।
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शहीद का संक्षिप्त परिचय-
विक्टोरिया क्रॉस शहीद गबर सिंह नेगी जी का जन्म चम्बा के मंज्यूड़ गांव में २१ अप्रैल १८९५ हुआ था। इनके पिता श्री बद्री सिंह नेगी और माता श्रीमती सावित्री देवी थी। छोटी उम्र में ही पिता की मृत्यु हो गई जिस कारण घर की जिम्मेदारी इनके ऊपर आ गई। इस पर वर्ष १९११ में टिहरी नरेश के प्रतापनगर स्थित राजमहल में नौकरी करनी शुरू कर दी। १ साल बाद १९१२ में इनकी शादी मखलोगी पट्टी के छाती गांव की सत्तूरी देवी से हुई। गबर सिंह राजमहल में नौकरी तो कर रहे थे लेकिन उनका मन नहीं लग रहा था वे फौज में भर्ती होना चाहते थे इसलिए राजमहल में केवल सितंबर १९१३ तक की नौकरी की। उसी दौरान प्रथम विश्वयुद्ध की आशंका के चलते फौज में भर्ती होने का दौर चला। गबर सिंह को शुरू से ही फौजी वर्दी और सेना से लगाव था। वह सेना में भर्ती होने के लिए लैंसडाउन जा पहुंचे और अक्टूबर १९१३ में गढ़वाल रेजीमेंट की २/३९ बटालियन में बतौर राइफलमैन भर्ती हुए। तब भारतवर्ष ब्रिटिश शासन के अधीन था।...…..….
गबर सिंह नेगी और प्रथम विश्वयुद्ध-
गब्बर सिंह को भर्ती हुए कुछ ही दिन बीते थे कि ब्रिटिशों ने भारतीय सेना को यूरोपीय मोर्चे पर तैनात किया जिसकी जिम्मेदारी गबर सिंह की रेजीमेंट को दी गई। २ सितंबर १९१४ को गढ़वाल रेजीमेंट ने यूरोप के लिए प्रस्थान किया और वहां युद्ध में डट गए। वहां पर जर्मन सेनाओं ने ४ मील से अधिक का अभेद्य मोर्चा बना लिया था। अभी तक जर्मन सेना ब्रिटिश सेना पर हावी थी ब्रिटिश सेनापति चिंतित थे कि आखिरी युद्ध कैसे जीता जाए। काफी सोच-विचार के बाद ब्रिटिश सेना के अधिकारियों ने युद्ध के अग्रिम मोर्चे पर गढ़वाल बटालियन को भेज दिया। १० मार्च १९१५ सुबह की प्रथम प्रहर चारों ओर घना कोहरा छाया हुआ था ब्रिटिश सैनिक अधिकारी और गढ़वाल बटालियन के बहादुर सैनिक आगे बढ़े। दुश्मन की गोलाबारी के कारण भारी संख्या में सैन्य अधिकारी एवं सैनिक मारे गए । इस युद्ध में 250 सैनिक तथा 20 अधिकारी शहीद हुए। मोर्चे पर जर्मन सेना की मशीन गन कहर बरपा रही थी। गढ़वाली वीर सैनिक जय बद्री विशाल के उद्घोष के साथ आगे बढ़े और अनेक बाधाओं को पार कर जर्मन सेना पर टूट पड़े। इसी दौरान टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे नायक शहीद हो गए। उनके स्थान पर गबर सिंह ने टुकड़ी का नेतृत्व किया और वह दुश्मन की पोस्ट में घुस गए उन्होंने अपनी रायफल से जर्मन सेना के सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया। एक ओर जर्मन सेना की मशीन गनें आग उगल रही थी तो दूसरी ओर गढ़वाल बटालियन के सैनिकों की सिंह गर्जना। जब गबर सिंह जी की राइफल खाली हो गई तो उन्होंने दुश्मनों की मशीनगन छीनकर उन पर ही गोलियां दागनी शुरू कर दी गबर सिंह ने न केवल जर्मन सैनिकों को मार गिराया बल्कि उनके सैकड़ों सैनिकों को बंदी भी बना दिया। इस युद्ध में वह दुश्मनों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। गढ़वाल राइफल के जवान गबर सिंह नेगी को मरणोपरांत सेना का तत्कालीन सर्वोच्च सम्मान विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किया गया। जब गबर सिंह शहीद हुए तो उस समय उनकी आयु मात्र २० साल थी। ब्रिटिश सरकार की ओर से सन् १९२५ में चंबा नगर के चौराहे में शहीद का स्मारक बनाया गया।जहां हर वर्ष उनकी शहादत दिवस और जन्मदिवस पर सेना के जवान उन्हें श्रद्धांजलि देने आते हैं।इस समय विश्व व्यापी काॅरोना संकट के चलते भारत सरकार द्वारा सभी सार्वजनिक समारोह स्थगित किए गये हैं। जिस कारण इस वर्ष प्रशासन द्वारा वीर गबर सिंह की जन्म स्मृति में आयोजित होने वाले ८ गति वैशाख थौल तथा अन्य समारोह स्थगित किए गए। लेकिन सामाजिक दूरी का पालन करते हुए स्मारक में पूजा अर्चना एवं माल्यार्पण किया गया। वीर गबर सिंह जी को भावभीनी श्रद्धांजलि।
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लेखक परिचय - विनय तिवारी, सोशल मीडिया युवा लेखक, सामाजिक कार्यो में सक्रियता, साथ ही चम्बा से जुड़ी गतिविधियों के लिए चबा द हिल किंग टिहरी गढ़वान पेज पर निरतंर सक्रिय रहते है । कई वेब पोर्टलों, वेबसाइटों के माध्यम से युवाओं को संकृति, राष्ट्रभक्ति से परिचित कराने का कार्य करते है ।
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Bhut sundr jankari
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंपहाड़ों में मेले का महत्व । एक उदाहण. चंबा के मेले के माध्यम से... यह बहुत ही अच्छा लेख है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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