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शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

गणेश चतुर्थी विशेष : स्वाधीनता संग्राम में गणपति की रही विशेष कृपा ।।web news uttarakhand।।


ब्रिटिश समयकाल में लोग किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम या उत्सव को साथ मिलकर या एक जगह इकट्ठा होकर नहीं मना सकते थे । इसीलिए, लोग घरों में पूजा अर्चना करते थे। स्वाधीनता संग्राम के अग्रदूतों में से एक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में पहली बार सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव मनाया जो आगे चलकर एक आंदोलन बना और स्वतंत्रता आंदोलन में गणेशोत्सव ने लोगों को एक जुट करने में अहम भूमिका निभाई । लोकमान्य तिलक ने उस दौरान गणेशोत्सव को जो स्वरूप दिया उससे गणपति "राष्ट्रीय एकता के प्रतीक" बन गए । उन्होंने पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि, गणेशोत्सव को आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का जरिया भी बनाया एवं उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया । इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
 

वीर सावरकर तथा अन्य क्रांतिकारियों ने भी गणेशोत्सव का उपयोग आजादी की लड़ाई के लिए किया , महाराष्ट्र के नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था । गणेशोत्सव में वीर सावकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्टर चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे आदि लोग भाषण देते थे और लोगों का संबोधित करते थे इस तरह गणेशोत्सव स्वाधीनता की लड़ाई का एक मंच बन गया था। हालात ये हो गए थे कि... अंग्रेज भी गणेशोत्सव के बढ़ते स्वरुप से घबराने लगे थे।

इस बारे में रोलेट समिति रिपोर्ट में भी चिंता जतायी गयी थी और रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं और स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं । जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है । साथ ही, अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जाता है । इस तरह हम निर्विवाद रूप से यह कह सकते हैं कि हमारे देश के आजादी में गणेश महोसत्व का बहुत ही बड़ा योगदान है।

वीडियो देखिए : You Tube पर हिट हो रहा है KPG Films Production का Uttarakhandi Video Song "मेरी धनुली" 


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सोमवार, 31 मई 2021

कोरोना काल में घर बैठे ऑनलाइन करे 'सुकन्या समृद्धि' बचत योजना से बेटियों का भविष्य सुरक्षित, पढे पूरी जानकारी ।। web news।।

सुकन्या-समृद्धि-योजना

जाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी सुकन्या समृद्धि योजना 

सुकन्या समृद्धि योजना 22 जनवरी 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आरंभ की गई । योजना के अंतर्गत बेटी के माता-पिता द्वारा बेटी के लिए बचत खाता पोस्ट ऑफिस (डाकघर) में या किसी भी राष्ट्रीय बैंक में खोल सकते हैं । 'सुकन्या समृद्धि' बचत योजना में बेटी की उम्र 10 साल होने से पहले न्यूनतम 250 रुपये से 15 साल के लिए खाता खुलवाया जा सकता है। इसकी पॉलिसी 21 साल बाद मैच्योर होती है। 

सुकन्या समृद्धि योजना में कैसे करना है निवेश?

इसमें 14 साल ही निवेश करना पड़ता है। इस योजना में निवेश का तीन गुना मुनाफा मिलता है। यह खाता देशभर में कहीं भी ट्रांसफर हो सकता है। योजना में अधिकतम डेढ़ लाख रुपये प्रतिवर्ष खाते में जमा कर सकते हैं। बेटी की उम्र 18 से 21 साल होने तक इसे जारी रख सकते हैं। पहले सुकन्या समृद्धि योजना के अंतर्गत 9.1 प्रतिशत की ब्याज दर थी, जो कि अब 7.6 फीसदी की ब्याज दर से ब्याज दिया गया है। 

एक उदाहरण से समझते है सुकन्या समृद्धि योजना 

मान लीजिए कि अगर आप 14 साल तक 1.5 लाख रुपये (12,500 रुपये महीने) सालाना का निवेश करते हैं, तो 15वें साल में 40 लाख रुपये की राशि इसमें हो जाएगी, इसके बाद 40 लाख रुपये अगर नहीं निकाला जाए, तो यह 21वें साल में बढ़कर 65 लाख रुपये हो जाएगी, जिसका आपकी बेटी अपने हिसाब से अपने सुनहरे भविष्‍य के लिए उपयोग कर सकती है। 
केंद्र सरकार की योजना होने की वजह से निवेश करने वालों के पैसों की पूरी सुरक्षा रहती है । अकाउंट में जमा किए गए पैसों पर इनकम टैक्स की धारा 80 सी के तहत छूट भी मिलती है। 

कोरोना काल में घर बैठे ऑनलाइन कर कर सकते पैसा जमा

अगर आपने अपनी बेटी का सुकन्या समृद्धि अकाउंट पहले ही खोल रखा है और कोरोना की वजह से आप पोस्ट ऑफिस या बैंक जाकर उसमें पैसे नहीं जमा कर पा रहे हैं, तो आपको अब बिल्कुल भी चिंता करने की जरूरत नहीं है। 

अब आप ये काम घर बैठे ऑनलाइन कर कर सकते हैं। 

◆सुकन्या समृद्धि अकाउंट में पैसा जमा करने के लिए सबसे पहले अपने बैंक खाते से आईपीपीबी खाते में पैसे जोड़े। 
◆अब डीओपी प्रोडक्‍ट पर जाएं, यहां आपको सुकन्या समृद्धि खाता दिखाई देगा, उसे सेलेक्ट करें। 
◆अब अपना एसएसवाई अकाउंट नंबर और फिर डीओपी कस्टमर आईडी भरें। 
◆अब किस्त की अवधि और राशि चुनें। इसके बाद प्रोसेस पूरा करते ही पैसे सुकन्या समृद्धि खाते में चले जाएंगे। 
◆आईपीपीबी पोस्ट ऑफिस का मोबाइल एप्लीकेशन आप गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं।
◆इसी प्रकार से आपको बैंक की साइट पर जाकर प्रयास करने हैं।

देखे वीडियो ,बाबा रामदेव ने फार्मा कंपनियों से पूछे 25 सवाल



शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

पर्यावरण संरक्षण : हमारी आवश्यता हमारे जंगल,जल, जमीन है - चन्दन सिंह नयाल ।।web news।।


प्रकृति प्रेमी चन्दन सिंह नयाल की प्रकृति संरक्षण यात्रा ।।

शुरुआती दौर में आज से चार पांच साल पूर्व मेरे गांव में सड़क भी नहीं थी लगभग 3 किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था तो उस वक्त मैं मेरे परिवार वाले मेरे युवा सहयोगी सड़क से गांव तक पेड़ों को अपने सर में ले जाकर अपने क्षेत्र में पौधारोपण करते थे और कई जगह कई गांव में हमने कंधों पर पौधे ले जाकर पौधारोपण भी किया कई जल स्रोतों पर भी हम लोगों ने चौड़ी पत्ती का पौधा रोपण किया एक जोश जुनून के साथ अभी भी यह कार्य निरंतर प्रगति पर है ।



पहाड़ की जिंदगी सब समझते हैं पहाड़ के रास्ते पहाड़ के स्कूल, नैनीताल जिले की कई दूरस्थ स्कूलों में जाकर बच्चों को पर्यावरण संरक्षण की जानकारी देने का कार्य भी निरंतर जारी है जिसमें अभी तक 251 से अधिक विद्यालयों में जाकर बच्चों को पर्यावरण संरक्षण की जानकारी दी, कई विद्यालयों में कई कई किलोमीटर पैदल जाना पड़ता है धूप हो या छांव हो निकल पड़ता था, प्रकृति से अमिट प्रेम ने सब कुछ भुला दिया बस यही समझा दिया की प्रकृति ही जीवन है जिसके लिए निरंतर प्रयास जारी है गांव के लोगों में जागरूकता धीरे-धीरे आने लगी है क्योंकि हम लोगों द्वारा दूरस्थ दूरस्थ गांव में जाकर वहां की महिलाओं को वहां के लोगों को जंगलों की महत्वता को समझाया खत्म होते विलुप्त होते जंगलों की रक्षा के लिए उन सब के साथ बीड़ा उठाया क्योंकि मुफ्त की चीज की कोई कदर नहीं करता यह कदर करना हमने गांव के लोगों को समझाने की कोशिश की मेरे नजदीकी गांव कोटली से लगता हुआ एक देव गुरु का बहुत बड़ा जंगल है जहां पर मध्य में देव गुरु बृहस्पति महाराज का मंदिर है जो लगभग 700 से 800 हेक्टेयर का जंगल है जिसमें कई गांव के लोग इस जंगल का अनियंत्रित दोहन कर रहे थे परंतु पिछले तीन-चार वर्षो के गांव वालों की और हमारे प्रयास से लोग समझने लगे हैं और अनियंत्रित दोहन कम किया है जिससे यह जंगल पुनः और भी घना प्रतीत होता है यहां 200 से अधिक जल स्रोत हैं ।


 जिन का मुख्य कारण यह है यहां चौड़ी पत्ती के बाज खरसू रेयाज बुरास उतीस , ऐसी कई जोड़ी पत्ती के पौधे हैं यह जंगल गोला नदी को भी अपने जल स्रोतों से पानी देता है, मन में ख्याल आया कि खुद ही अपने घर पर पौधे तैयार करो छोटी सी नर्सरी तैयार कर जंगल में पौधे रोपित करने के लिए पौधे तैयार किए अपनी निजी भूमि पर, देखिए हमारे पहाड़ में जंगल की महत्वता सर्वाधिक होती है चाहे वह खेती हो चाहे वह बागवानी हो चाहे वह ईधन के लिए हो, हमारी जरूरत हमारे जंगल हैं अगर हम कुछ भी करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम जंगल की ही आवश्यकता है जल की ही आवश्यकता है जब जल जंगल जमीन है तब हम खेती की बात कर सकते हैं बागवानी की बात कर सकते हैं स्वरोजगार की बात कर सकते हैं गहराई से जंगल की महत्वता को समझना होगा आज जहां कई प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं उनकी विलुप्तता का कारण कहीं ना कहीं हम ही लोग हैं मेरा मुख्य उद्देश्य यह भी रहा कि जो प्राकृतिक जंगल है उन्हें संरक्षित करने का कार्य बहुत जरूरी है जो हमने प्रारंभ किया, साथ ही युवा साथियों के साथ वन पंचायतों में पौधारोपण कार्य किया और कई जल स्रोतों के आसपास चाल खाल खंन्तिया बनाई गई साथ ही अगस्त सितंबर माह में प्रत्येक वर्ष पौधा वितरण का कार्यक्रम भी हम लोग करते हैं 1- 1,2 - 2 पौधे अलग-अलग गांव में जाकर ग्रामीणों को देते हैं जो फलदार पौधे होते हैं जिन्हें वह अपने घर पर लगाते हैं, इस वर्ष लॉकडाउन में हमारे द्वारा कई चाल खाल बनाए गए हैं जो जल संरक्षण की मुख्य भूमिका पर है


यह सारे कार्य युवा साथियों के सहयोग से ही किया जाता है क्योंकि हमारा कोई एनजीओ नहीं है और ना ही कोई फंडिंग होती है पिछले छह 7 वर्षों से हमारे द्वारा यह कार्य किए जा रहे हैं यह 6,7 वर्षों का समय पहाड़ जैसा संघर्षशील रहा है क्योंकि पहाड़ में बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और इन कठिनाइयों का सामना हमने किया और आगे भी करते रहेंगे ।

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लेखक : चंदन सिंह नयाल

परिचय : प्रकृति प्रेमी,पर्यावरण संरक्षक कार्यकर्ता

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इम्युनिटी बढ़ाये कोरोना भगाये - डॉ शैलेन्द्र कौशिक व डॉ प्रिया पांडेय कौशिक

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लोकपर्व हरेला : पर्यावरण संरक्षण का स्वयं सिद्ध पर्व है हरेला - संदीप ढौंडियाल, ।। Web News।।

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गुरुवार, 16 जुलाई 2020

लोकपर्व हरेला : पर्यावरण संरक्षण का स्वयं सिद्ध पर्व है हरेला - संदीप ढौंडियाल, ।। Web News।।



हमारे पूर्वजों की पर्यावरण संरक्षण के प्रति दूरदर्शिता दर्शाता है उत्तराखण्डी लोकपर्व हरेला ।।


आज पूरा विश्व समुदाय पर्यावरण संरक्षण को लेकर चिंतन कर रहा है। साथ ही कई तरह के दिवसों के माध्यम से भी जन - जागरूकता चलाई जा रही है। एक ओर जल संरक्षण से लेकर वायु, मिट्टी और पर्यावरण संरक्षण के लिए वर्ष भर कई दिवसों के माध्यम से करोड़ों रुपए के कार्यक्रम  आयोजित किए जाते रहे हैं।
आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समय की मांग के हिसाब से एक ओर जरूर प्रकृति संरक्षण पर बल दिए जाने की बात कई फोरम पर उठती हैं। लेकिन प्रकृति संरक्षण को लेकर वास्तव में हमारे पूर्वज कितने सजग थे और उनकी कितनी दूरदर्शी सोच थी। यह हमारे पर्व त्योहारों और संस्कृति में आसानी से समझा जा सकता है। जिसकी एक बानगी झलकती है हमारे उत्तराखंडी पर्व हरेला में। हरेला का सीधा शाब्दिक अर्थ ही हरियाली है। हरियाली यानी प्रकृति का रूप। हरेला पर्व श्रावण माह के पहले दिन मनाया जाता है। जिसमें वृक्षारोपण के साथ ही कुछ पारंपरिक तौर तरीके से प्रकृति की पूजा और अनुष्ठान किया जाता है। अगर गौर किया जाए तो प्राकृतिक रूप से भी  वृक्षारोपण का सही समय और सही मौसम भी यही होता है। उत्तराखंड राज्य में हरेला पर्व को एक शासकीय मान्यता का रूप देकर निश्चित ही प्रकृति को बचाने की विरासत या परंपरा को  सबल बनाया है। यूं तो हरेला उत्तराखंड के गांव में साल के शुरू के दिन से और आखिर तक पौधों के रोपण के साथ - साथ प्रकृति के कई आयामों को बचाने के लिए जाना जाता है। जैसे  सदियों से परंपरा रही है कि श्रावण के महीने में शिकारी लोग जंगलों में शिकार नहीं करते थे। क्योंकि यह वन्य पशुओं के प्रजनन का महीना होता है। यह प्रकृति के प्रति उनकी भावनात्मक रूप से जुड़ाव को दर्शाता है। वहीं इसके साथ ही कुछ ऐसे पर्व शुरू होते हैं जब लोग  ऊंचाई पर स्थित बुग्यालों से फूलों को लाना शुरू करते हैं। जैसे कई स्थानों पर ब्रह्म कमल को नंदा अष्टमी के पर्व पर ही तोड़े जाने की परम्परा है। चमोली जिले की उरगम घाटी इसका का एक उदाहरण है।
उत्तराखंड में नई बहुओं को हरेला के जौ जमाकर हरियाली देने की प्रथा है। यह पर्व कुमाऊं के क्षेत्र में ज्यादा प्रचलित है। जैसे बिहार का छठ पर्व, पंजाब का करवा चौथ और नेपाल से आया हुआ तीज त्यौहार है। इसी प्रकार उत्तराखंड का हरेला पर्व भी राष्ट्रीय बनता जा रहा है। पानी और पेड़ का एक साथ संबंध होने के कारण सावन का महीना वृक्षारोपण के लिए सबसे मुफीद माना जाता है। ऐसे में हरेला अपने आप में कहीं न कहीं पर्यावरण संरक्षण का स्वयं सिद्ध पर्व है।

हमें आशीर्वचन देती लोक पर्व हरेला के दिन गायी जाने वाली कुमाउँनी लोकगीत की कुछ पंक्तिया-

जी रया जागि रया आकाश जस उच्च,
धरती जस चाकव है जया स्यावै क जस बुद्धि,
सूरज जस तराण है जौ सिल पिसी भात खाया,
जाँठि टेकि भैर जया दूब जस फैलि जया

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लेखक परिचय -,संदीप ढौंडियाल, एक बड़े समाचारपत्र में पत्रकार और पर्यावरणीय स्तम्भ लेखक होने के साथ ही इंजीनियर, सामाजिक संस्था जिंदगी डायरेक्शन सोसाइटी देहरादून के संस्थापक व अध्यक्ष

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शुक्रवार, 5 जून 2020

Environment Day :पहाड़ का बदलता पर्यावरण और हाशिये पर पहाड़ी - सुमित बहुगुणा ।। Web news Uttrakahnd ।।



Environment-day , 5-june, paryawaran-diwas


पर्यावरण दिवस विशेष इस लेख में पहाड़ों में हो रहे बदलावों को पहाडी की नजरों से देखते है ।

उत्तराखंड जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय बदलावों से हो रहे नुकसान का असर देखा जा सकता है उत्तराखंड की राजधानी देहरादून व अन्य मैदानी शहर वायु प्रदूषण के घेरे में तो पहले ही आ चुके हैं । किंतु आज चिंता यह है कि पहाड़ों में विकास के नाम पर हो रहे अंधाधुंध निर्माण कार्यो व पहाड़ी प्राकृतिक सम्पदाओं के निरंतर दोहन से ,वायु प्रदूषण जैसी गंभीर  समस्या ने पहाड़ों में भी जन्म ले लिया है । पहाड़ों में आज विभिन्न बांध परियोजनाओं के साथ बड़े पैमाने पर चल रहे निर्माण कार्यों ने हालात को और चिंताजनक बना दिया है । 2013 की केदारनाथ आपदा से तबाह संपूर्ण केदार घाटी में पुनर्निर्माण के कार्य जिस तेजी से गति पकड़ रहे हैं वह मनुष्यों का केदार घाटी पहुंचना सुगम कर देंगे परन्तु तेजी से हो रहा पर्यावरणीय नुकसान किसी आपदा से कम नहीं । विकास कार्यो को हमे SDG यानी सतत विकास के लक्ष्यों के आधार पर ही करना चाहिए ।

अंग्रेजों ने अपने समय में मसूरी, नैनीताल जैसे पहाड़ी कस्बे स्वच्छ पर्यावरण को देख कर बसाए ,साथ ही देहरादून शहर में शिवालिक और मध्य हिमालय से घिरी घाटी के स्वच्छ पर्यावरण को देखते हुए ही स्वप्निल बसेरे बनाए गए थे। इन जगहों को आज अलग अलग किस्म के प्रदूषणों की शिकार होते हुए देखा जा सकता है , सुहाने मौसम के लिए विख्यात दून अब धूल, धुएं और शोर की घाटी है। स्मार्ट सिटी के लिए नामित होने के साथ अब यहां विकास कार्यों ने जो गति पकड़ी है उससे प्रदूषण के स्तर का भी गति पकड़ना स्वाभाविक है। पहाड़ों से देहरादून पलायन कर घर बसाने की वजह से भी पिछले कुछ दशकों में यहां जनसंख्या में तेजी आई है साथ ही पड़ोसी राज्यों के लोगों द्वारा देहरादून की सरकारी जमीनों पर झुग्गी बस्तियां बसाने से भी जनसंख्या का बोझ राजधानी देहरादून पर पड़ा है।

ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने पर चिंताएं जताई जा रही हैं , विद्वानों और विशेषज्ञों में इस बारे में बहुत मतभेद भी हैं। कुछ कहते हैं ग्लेशियरों का पिघलना असाधारण बात नहीं है सैकड़ों हजारों साल के बाद ग्लेशियरों का बनना बिगड़ना स्वाभाविक व प्राकृतिक घटनाएं है लेकिन कुछ पर्यावरणविद और वैज्ञानिक पुरजोर तौर पर मानते है कि ग्लेशियरों का पिघलना एक सामान्य घटना नहीं है और ये जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े सूचकों में से एक है। इन बहसों से दूर भी रहा जाए लेकिन एक सच्चाई तो यही है  कि पहाड़ों के मौसम अब पहले जैसे तो नहीं रहे,आजकल होने वाली बेमौसमी बारिश हम देख ही रहे हैं।

फसल की पैदावार का पैटर्न भी दिनप्रति दिन बदला है।
फसलों में गुणात्मक और मात्रात्मक गिरावट दोनों देखी जा सकती है । पलायन के चलते बड़े पैमाने पर पहाड़ी जमीन बंजर हो रही है । मानव शून्यता के समय में भी नया माफिया पनप गया है जो भविष्य के लिए निर्माण से लेकर पलायन तक एक बहुत ही संगठित लेकिन अदृश्य शक्ति के रूप में सक्रिय है , यह स्तिथि भी पहाड़ और पहाडी के लिए चिन्तादायक हो सकती है

पहाड़ के पर्यावरण के परिपेक्ष में इन घटनाओं को पहाड के लिए अच्छा नही माना जा सकता, कोविड 19 कोरोना वाइरस के चलते लॉक डाउन की स्थिति से पर्यावणीय सुधारों को सतत नही माना जा सकता न ही यह सत्य है । हरिद्वार में स्वछ गंगाजल और सहारनपुर से दिखायी देने वाली पहाडी आनंदित तो करती है लेकिन कितने समय यह स्थिति बनी रहेगी इसका आकलन करना भी कठिन है । पहाड़ियों की पहाड वापसी को रिवर्स पलायन से जोड़ कर देखा जा रहा है लेकिन पलायन की स्थिति पहले आयी ही क्यों और अगर आज समय पहाड़ियों के पहाड़ वापसी का आया है तो सिस्टम उनके लिए पहाड़ फ्रेन्डली कौन सी योजनाएं बना रहा है इन बातों की चिंता हमे प्रर्यावरण दिवस पर आवश्य करनी चाहिए ।

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लेखक- सुमित बहुगुणा "पहाड़ी"

परिचय- अध्यक्ष ( IT प्रकोष्ठ ), पहाड़ी पार्टी - PP , पर्यावरण कॉलमिस्ट, युवा राष्ट्रवादी लेखक, पहाड़वाद सोच की अवधारणा रखने वाले पहाड़ हितैषी, चम्बा-उत्तराखण्ड पेज के एडमिन, ऑनर एन्ड फाउंडर - The Retreat Restorent Harawala , Dehradun

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मंगलवार, 26 मई 2020

भारत नेपाल के बीच चर्चा में आये काली नदी विवाद को आसान भाषा मे समझा रहे है- भगवान सिंह धामी ।।web news ।।

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क्या है काली नदी विवाद इसे समझते है।

सबसे पहले तो इतिहास को देखते हैं जिससे हमें मालूम पड़ता है कि वर्तमान पश्चिमी नेपाल जोकि बाइसी और चौबीसी राज्य क्षेत्र में सम्मिलित है। पूर्व में नेपाल का हिस्सा नहीं था, डोटी और जुमला स्वतन्त्र राज्य थे जैसे उत्तराखण्ड में पँवार और चंद राज्य थे।

चौबीसी जो कि 24 ठकुराइयों में बंटा था इसमें ही एक ठकुराई थी कास्की जिसके अधीन गोरखा राज्य था, जो गुरु गोरखनाथ पर गोरखा कहलाया था। पूर्व में गोरखा केवल एक राज्य था वर्तमान में एक जनपद है।

सीधे विवाद में आते है इतिहास में ज्यादा न पड़ते हुए।

1815-16 में अंग्रेजों और नेपाल के मध्य सिगौली की संधि हुई जिसमें पारस्परिक सम्प्रभुता के साथ ही काली नदी भारत-नेपाल के मध्य सीमा घोषित की गई। हालांकि गोरखों द्वारा डोटी जीतने से पूर्व तक सुदूर पश्चिमी अंचल कभी भी नेपाल का अंग नहीं था। इस संधि से सुदूर पश्चिमी क्षेत्र नेपाल का अंग बन गया। 1817 में असंतुष्ट नेपाल ने सीमांकन दुबारा करवाया तब दो गाँव #छांगरु और #तिंकर नेपाल को दे दिए गए। (नीचे नजरिया मानचित्र में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं)

मानसखण्ड के अनुसार काली नदी के उद्गम कालापानी से होता है। और यह बात सर्वबिदित भी है। कालापानी नामक स्थान पर पानी हालांकि कम मात्रा में है पर उसके कारण ही काली का जल काले रंग का होता है।

अब नेपाल अभी जो मांग रख रहा है वह ये है कि बड़े जलस्रोत को काली नदी माना जाना चाहिए और बड़ा जलस्रोत काली नदी के लिए गूंजी गांव में काली में मिलने वाली कुटी नदी है, जिसे स्थानीय लोग कुटी यांगटी कहते हैं।

यह बात प्रत्येक नेपाली और भारतीय स्थानीय नागरिक जानते हैं कि काली नदी कौन सी है और कुटी यांगती कौन सी है।

बहरहाल नेपाल का यह तर्क मान भी लिया जाये कि बड़ा जलस्रोत ही मान्य होगा तो सवाल सभी उन लोगों से हैं जो गंगा और अलकनंदा को जानते हैं सही मायने में अलकनंदा नदी बड़ी है आकार में जल धारण क्षमता में तो क्या भागीरथी नदी को गंगा न मानकर अलकनंदा नदी को गंगा कहा जाना उचित होगा.?

ये बेतुका तर्क नेपाल सरकार द्वारा दिया जा रहा है, लेख लम्बा करने का कोई अभिप्राय नहीं है। आप लोग नीचे दिए गए मैप के माध्यम से विवाद और नेपाल की मानसिकता को आसानी से समझ सकते हैं।

Map
Map- Pan Singh Dhami



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लेखक - भगवान सिंह धामी
परिचय - सीमांत धारचूला (पिथौरागढ़) स्यांकुरी गांव के भगवान सिंह धामी  वर्तमान में उत्तराखंड सचिवालय में कार्यरत, युवा इतिहास के जानकार, उत्तराखण्ड ज्ञानकोष General Study के एडमिन , उत्तराखण्ड ज्ञानकोष जनपद दर्पण के लेखक, इनफार्मेशन ब्लॉगर
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जन्मदिवस विशेष: अमर हुतात्मा श्रीदेव सुमन ने टिहरी रियासत को राजशाही के बेड़ियों से मुक्ति दिलायी- विनय तिवारी ।।web news ।।




सोमवार, 25 मई 2020

जन्मदिवस विशेष: अमर हुतात्मा श्रीदेव सुमन ने टिहरी रियासत को राजशाही के बेड़ियों से मुक्ति दिलायी- विनय तिवारी ।।web news ।।


Shridev-suman

टिहरी सियासत के स्वतंत्रता सेनानी अमर हुतात्मा श्री देव सुमन जी को शत शत नमन

अपनी जननी-जन्मभूमि को परतंत्रता की बेड़ियों से आजादी दिलाने के संकल्प को मन में लिए जीने और परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़कर राजशाही से मातृभूमि को आजादी दिलाने के लिए अपना जीवन अर्पण करने वाले तरुण तपस्वी श्रीदेव सुमन जी को उनके जन्मदिवस पर शत्-शत् नमन एवं भावभीनी श्रद्धांजलि।

श्रीदेव सुमन और टिहरी राज्य का गणराज्य भारत में विलय

श्री देव सुमन जी का जन्म जिला टिहरी गढ़वाल के चम्बा ब्लॉक, बमुण्ड पट्टी के जौल गांव में २५ मई १९१६ को हुआ था । इनके पिताजी का नाम पंडित हरिराम बडोनी तथा माताजी का नाम श्रीमती तारा देवी था। इनके पिता अपने क्षेत्र के लोकप्रिय वैद्य थे । सन् १९१९ में जब क्षेत्र में भयानक हैजा रोग का प्रकोप हुआ तब उन्होंने अपने जीवन की परवाह किए बिना रोगियों की दिन रात एकनिष्ठ सेवा की। उनके परिश्रम से रोगियों को कुछ राहत तो मिली लेकिन वे स्वयं हैजा के शिकार हो गए और मात्र ३६ वर्ष की आयु में परलोक चले गये। उसके बाद सुमन जी की दृढ़ निश्चयी मां ने श्रीदेव सुमन का लालन-पालन तथा शिक्षा का उचित प्रबंध किया । सुमन जी ने पिता से लोक सेवा तथा माँ से दृढ़निश्चय के गुण अंगीकार किए । उनकी पत्नी श्रीमती विजय लक्ष्मी थी जिन्होंने हर संघर्ष में सुमन जी का साथ दिया। सुमन जी की प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव एवं चम्बा से हुई तथा टिहरी से मिडल पास किया। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने अनेकों उपाधियां प्राप्त की। इसी दौरान सन् १९३० में वो देहरादून गए तथा वहां सत्याग्रहियों का जत्था देखा और उसमें शामिल हो गए। उसके बाद देहरादून में अध्यापक की नौकरी करने लगे। उस दौरान देहरादून में ब्रिटिश शासन के खिलाफ चल रहे आंदोलनों से प्रभावित हुए तथा टिहरी की राजशाही के अत्याचार के खिलाफ खड़े हो गए। जनता पर राजशाही के अत्याचारों से क्षुब्ध होकर इन्होंने राजशाही के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया |

"अपने देश के लिए और खासकर टिहरी राज्य की प्रजा के लिए मैं अपने जीवन को अर्पित कर दूंगा, पर टिहरी के सार्वजनिक जीवन को कुचलने नहीं दूंगा" श्री श्रीदेव 'सुमन'

इस दौरान सन् १९३९ में उन्होंने टिहरी "प्रजामण्डल" की स्थापना की व राजशाही के अत्याचारों के विरुद्ध टिहरी की आम जनता को एकजुट किया। इस प्रकार वे टिहरी राजशाही के विरोध में सक्रिय भूमिका में आ गए। इसी कारण सन् १९४२ में इन्हें टिहरी के राजा की पुलिस ने गिरफ्तार कर इन पर भविष्य में टिहरी आने पर प्रतिबंध लगा दिया । इसी क्रम में ३० दिसम्बर १९४३ को इन्हें पुनः गिरफ्तार कर दिया गया। उन पर आमानवीय जुल्म किये गए तथा उनके पूरे शरीर को ३५ सेर की बेड़ियां से जकड़ दिया गया २९ फरवरी १९४५ को उन्होंने जेल में जेल प्रशासन के अभद्र व्यवहार के खिलाफ अपना अनशन शुरू किया। जिस पर राजा की ओर से आश्वासन के बाद उन्होंने अनशन समाप्त किया। लेकिन कुछ ही समय बाद टिहरी शासन अपनी हरकतों पर वापिस आ गया। जिससे आहत हो उन्होंने पुनः ३ मई १९४५ को आमरण अनशन शुरू कर दिया। इस पर जेल प्रशासन द्वारा भीषण जुल्म किये गए। सुमन जी का हौंसला टूटता हुआ नहीं दिखने पर क्रूर जेल कर्मियों ने उन्हें जानलेवा इंजेक्शन लगवाए। जिस कारण २५ जुलाई १९४४ को शाम करीब ४ बजे उस वीर अमर सेनानी ने राजशाही से अपनी मातृ भूमि एवं अपने आदर्शों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसी रात जेल प्रशासन द्वारा जनता से छुपते-छुपाते इनकी मृतक देह को कंबल में लपेटकर भागीरथी-भिलंगना के संगम से गंगा नदी में डाल दिया। राजशाही का यह अपराध टिहरी राजशाही के लिये उसकी ताबूत का आखरी कील साबित हुआ । राजशाही को जनता के आक्रोश के आगे घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप राजशाही ने टिहरी प्रजामंडल को मान्यता दे दी। सन् १९४७ में प्रजामंडल का प्रथम अधिवेशन हुआ। सन् १९४८ में तो प्रजा ने देवप्रयाग, कीर्तिनगर और टिहरी पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार एक के बाद एक राजशाही कमजोर हो गई। इसके बाद १ अगस्त १९४९ को टिहरी रियासत का भारतीय गणराज्य में विलय हो गया। राजशाही से आजादी एवं भारतीय गणराज्य में विलय के बाद उनकी पत्नी दो बार देवप्रयाग क्षेत्र से विधायक भी चुनी गईं।
इस प्रकार सुमन जी एवं उन जैसे अनेकों कर्मयोगी नायकों ने टिहरी रियासत की जनता को राजशाही से मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र भारत का अभिन्न अंग बनने का मार्ग प्रशस्त किया।

श्रीदेव सुमन जी का सरकारी सम्मान

श्रीदेव सुमन जी के सम्मान में प्रदेश सरकार द्वारा अनेकों योजनाएं उनके नाम से चलाई जाती है। अनेकों विद्यालय, कॉलेज, अस्पताल एवं अनेकों संस्थानों को उनके नाम से चलाया जाता है। प्रसिद्ध टिहरी झील को भी सुमन सागर के नाम से जाना जाता है।

टिहरी की जनता का श्रीदेव सुमन जी के वास्तविक सम्मान में सपने

टिहरी सियासत सदैव ऋणी रहेगी अमर बलिदानी श्रीदेव सुमन जी का। हमारी आगे की पीढ़ी भी अपने स्मृति पटल पर हमेशा हमेशा के लिए सुमन को अंकित कर सके इसके लिए सरकार से हमारी मांग रहेगी कि चम्बा य आस पास के क्षेत्र में एक आधुनिक स्मारक बनाया जाय जिसमें श्रीदेव सुमन जी की स्मृतियों को संजोया जाय, ऐसे प्रयास पहले भी हुए है जो अभी तक सफल नही हुए , श्रीदेव सुमन जी पर शोधार्थियों के लिए सरकार द्वारा उचित सहयोग मिलना चाहिए । 

इस प्रकार सुमन जी का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित हो गया। नमन है इस भूमि को, उन मां-पिता को जिन्होंने ऐसे सपूत को जन्म दिया।

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Vinay-tiwari
लेखक परिचय - विनय तिवारी, सोशल मीडिया युवा लेखक, सामाजिक कार्यो में सक्रियता, साथ ही चम्बा से जुड़ी गतिविधियों के लिए चबा द हिल किंग टिहरी गढ़वान पेज पर निरतंर सक्रिय रहते है । कई वेब पोर्टलों, वेबसाइटों के माध्यम   से युवाओं को संकृति, राष्ट्रभक्ति से परिचित कराने का कार्य करते है । 

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शुक्रवार, 22 मई 2020

Biodiversity Day Special : जैव विविधता का असंतुलन है केदारनाथ जैसी त्रासदी - संदीप ढौंडियाल ।। web news uttrakhand ।।


Kedarnath

अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस पर विशेष

जैव विविधता अर्थात जीवों के अनेक प्रकार या कह सकते हैं जीवन के अनेक रूप। प्रकृति में मौजूद वनस्पति से लेकर सभी जीव जंतुओं की संतुलित मौजूदगी पर चिंता ने ही जैव विविधता दिवस की परिकल्पना की। निरंतर होते जा रहे प्रकृति के दोहन ने आज पूरे विश्व को इस ओर ध्यान आकर्षित कर सोचने पर मजबूर किया है। इन्हीं तमाम चिंताओं को लेकर विश्व समुदाय ने 22 मई को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। प्रत्येक वर्ष एक नए विषय पर पूरे विश्व भर में चिंतन और मनन होता है। साथ ही उस पर तमाम देश अच्छे सुझाव को लेकर जैव विविधता के संरक्षण के कार्य को अंगीकार करते हैं।

सही मायने में प्रकृति जैसे - हवा, पानी, पेड़, वनस्पति सहित वन्य जीव जंतु का मानव से सीधा जुड़ाव ही जैव विविधता है। प्रकृति या पर्यावरण का असंतुलित हो जाना ही कारण बनता है प्राकृतिक उथल - पुथल का। जिसके फिर भयंकर परिणाम सामने आते हैं। जैसे बाढ़, चक्रवात, तूफान और भूकंप जैसी अप्रिय घटनाओं का होना। इन सब को देखते हुए मानव सभ्यता को बचाने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम प्रकृति को उसके मूल स्वरूप में ही रहने दें। प्रकृति के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ करने का अर्थ है प्रकृति का रुष्ट और क्रोधित हो जाना। दुष्परिणाम स्वरूप 2013 की केदारनाथ जैसी भयंकर त्रासदी का घटित होना। पूर्व में ऐसी घटनाएं ही कारण भी रही है कि जैव विविधता के संरक्षण के लिए विश्व भर में आवाज उठने लगी। 29 दिसंबर 1992 को नैरोबी में जैव विविधता के एक कार्यक्रम में जैव विविधता दिवस को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया गया। लेकिन तमाम देशों  की ओर से कठिनाइयां व्यक्त करने के बाद 29 मई की जगह 22 मई को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस मनाए जाने का निर्णय लिया गया। जिसमें प्रकृति के साथ ही संस्कृति के संरक्षण पर भी बल दिया गया। जैसे भाषा - संगीत, कला - शिल्प के साथ ही पारंपरिक वस्त्र और भोजन आदि को जोड़कर  इनके संरक्षण पर भी ध्यान केंद्रित किया गया।

अगर भारत की बात करें तो पूरे देश की लगभग 28 प्रतिशत जैव विविधता हिमालयी क्षेत्र में है। जिनमें से एक बड़ा हिस्सा उत्तराखंड में मौजूद है। राज्य में 6 राष्ट्रीय उद्यानों सहित 7 वाइल्ड लाइफ सेंचुरी, 4 कंजर्वेशन और एक बायोस्फीयर रिजर्व मौजूद है। वर्तमान समय में सरकारों की ओर से अपने स्तर पर जैव विविधता संरक्षण को लेकर कई कार्य किए जा रहे हैं। जैसे लगातार लुप्त होते जा रहे भारतीय चीता और शेरों की ओर ध्यान गया तो उनके संवर्धन और संरक्षण के लिए लगातार कार्य किया जाने लगा। ऐसे ही प्रयासों के लिए उत्तराखंड राज्य में भी उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड का गठन किया गया है। मौजूदा समय में जैव विविधता संरक्षण के लिए तमाम ग्रामीण क्षेत्रों में वृहद रूप में कार्य किए जाने की आवश्यकता है। ग्रामीण अंचल में बसी हुई प्रकृति और संस्कृति को संजोए रखना आज किसी चुनौती से कम नहीं है। ऐसे में हमें चाहिए कि जैव विविधता संरक्षण के लिए दूरस्थ क्षेत्रों के गांवों  को जोड़कर इसमें ग्रामीणों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। उत्तराखंड प्रकृतिक सम्पदा से धन-धान्य राज्य है। यहां के लोगों की तमाम धार्मिक मान्यताएं हमें प्रकृति से सीधे जोड़ती हैं। ऐसे में यहां के पौराणिक मठ - मंदिरों को भी जैव विविधता में शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही उनके संवर्धन और संरक्षण के लिए अनवरत प्रयास किए जाने की नितांत आवश्यकता है।

जैव विविधता संरक्षण के महत्व को आज के संदर्भ में इन पंक्तियों से समझा जा सकता है -


श्रृंखलाएं पर्वतों की, क्यों दहाड़ मारे रो उठी।
बाघ, पानी, पेड़, पक्षी, है मानवों से क्यों डरी।।
है सभ्यता का अंत निश्चित, जो अनादि से थी अडिग खड़ी।
विनाशरूपी विकास में, कुछ हिस्सेदारी मेरी सही।।

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लेखक परिचय -,संदीप ढौंडियाल, एक बड़े समाचारपत्र में पत्रकार और पर्यावरणीय स्तम्भ लेखक होने के साथ ही इंजीनियर, सामाजिक संस्था जिंदगी डायरेक्शन सोसाइटी देहरादून के संस्थापक व अध्यक्ष

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